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प्रमुख राजस्‍थानी कहावतें

  1.  अकल मोटी कै भैंस — शारीरिक बल से बौद्धिक बल अधिक बड़ा होता है।
  2. अंक आंख रो के मीं चै के उघाड़ै — दूसरा कोई विकल्‍प न होना।
  3. दाब्‍यों बाणियों पूरों तोलै — स्‍वार्थी और मजबूर व्‍यक्ति अनचाहा कार्य भी कर देता है।
  4. आंधी पीसै कुत्ता खाय — बेबस की कमाई दूसरे ही खाते है।
  5. अंधेर नगरी चौपट राजा — कुप्रशासन और अजागरूकता।
  6. आप आपरी डफली अर आप आप रो राग — अपनी मनमानी करना और एक दूसरे के साथ तालमेल न बनाये रखना।
  7. आपरी घुरी में कुत्तो भी शेर होवै — अपने घर में सब बलवान होते हैं।
  8. आंधै नै के चाईजै — इच्छित वस्‍तु की प्राप्ति होना।
  9. आंधां में काणो राजा — अज्ञानियों में अल्‍पज्ञ भी बुद्धिमान माना जाता है।
  10. आंधै आगै ढोल बाजै डमडम बंयरी होरी है — अपात्र को कुछ भी कहने से लाभ नहीं।
  11. हिवै रो आंधो अर गांठ रो साचो — मूर्ख किंतु संपन्‍न व्‍यक्ति।
  12. आंधै रै तळै बुट बड़ दबरी है — बिना मेहनत के ही उपलब्धि प्राप्‍त होना।
  13. बीन रै मुंडे ल्‍याळपड़े जानी के करै — स्‍वयं में ही खोट हो तो दूसरों को क्‍या दोष।
  14. इनै पडू तो कुओं अनै पडूं तो खाड — दोनों ओर संकट।
  15. चिणां साथे घुण भी पीसीजै — दोषी की संगति से निर्दोष भी मारा जाता है।
  16. पाडियै सूं पड्या तो परिड़ पर आ पड़या — एक विपत्ति से पिण्‍ड छूटा तो दूसरी आ गई।
  17. आं तिलां में तेल कोनी — किसी भी तरह के लाभ की संभावना न होना।
  18. ऊंट रै मुंडे मे जीरो — आवश्‍यकता की तुलना में बहुत कम पूर्ति करना।
  19. ऊंट री चारी अर कोड़े-कोड़े — गुप्‍त न रहने वाले कार्य को गुप्‍त ढंग से करने का प्रयास करना।
  20. एक हाथस सूं ताळी कोनी बाजै — एक पक्षीय सक्रियता से कार्य पूरा नहीं होता।
  21. गुड़ दियां मर जावे जरह देवै ई क्‍यूं — यदि शांति पूर्वक ही कोई कार्य हो जाये तो कठोर व्‍यवहार की आवश्‍यकता नहीं।
  22. चंदन की चुटकी भली गाडो भला न काट — उपयुक्‍त गुण वाली वस्‍तु थोड़ी सी भी अच्‍छी है और अधिक मात्रा में अनुपयुक्‍त वस्‍तु भी निरर्थक है।
  23. जिम्‍या पछै चळू होवै — कार्य सम्‍पन्‍न हो जाने के बाद कुछ नहीं किया जा सकता।
  24. जेठ सारै बेटी को जाई नी — दूसरे के भरोसे कार्य नहीं करना
  25. थोथो चणों बाजै घणौं — अकर्मण्‍य बातें अधिक बनाता है
  26. होठी पाछै घाघरो मार खसम रै सिर में — उपयुक्‍त अवसर निकल जाने पर मांगपूर्ति निरर्थक।
  27. चोर चोर मौसेरा भाई — दुष्‍ट प्रवृति के लोग अपने जैसों को खूद ही ढूंढ लेते हैं।
  28. एक बास में दो झोटा कोनी खटावै — एक ही स्‍थान पर दो समान वर्चस्‍व के प्रतिद्वंद्वी नहीं रह सकते है।
  29. कसूबळो टाबर तिंवार नै रूसै — मूर्ख व्‍यक्ति शुभ वक्‍त का फायदा नहीं उठा सकता।
  30. दिल्‍ली में किसा भड़भुंजा कोनी रेवै — अपवाद तो सभी जगह होते हैं।
  31. लंगड़ी गधी अर लाहौर रो भाडो — अयोग्‍य द्वारा अधिक की मांग।
  32. कोयलै री दळाली में हाथ काळ — बुरे कार्य से जुड़ने पर बुराई मिलती है।
  33. किरळे नै देखर किळे रंग बदलै — एक को देखकर दूसरे में परिवर्तन आता है।
  34. गुड़ खावै अर गुलगुलां सूं परहेज — बनावटी परहेज।
  35. ऊंखळी मूं सिर दे दियो तो धीमड़ा स्‍यू के डरणों है — कठिन कार्य हाथ में लेने पर आने वाली कठिनाई से विचार न होना।
  36. करले सो काम अर भजसे सो राम — समय पर जो कार्य कर लिया जाये वही अपना है।
  37. काणती रै ब्‍याव में सौ कातक — किसी दोष से युक्‍त होने पर कठिनाइयां आती ही आती ही आती है।
  38. चमड़ी जा पर दमड़ी न जा — अत्‍यधिक कंजूस।
  39. चिकणै घड़ै पर पाणी कोनी ठैरै — बेशर्म पर कोई असर नहीं होता।
  40. चोपड़ेड़ी अर दो दो — अच्‍छी चीज ओर वह भी बहुतायत में।
  41. दुनिया किसी के आप जिसी — खुद की सोच जैसे लोग।
  42. चोरी रो माल मोरी में — गलत ढंग से कमाया धन यूं ही बर्बाद हो जाता है।
  43. जिसो देश बिसो भेष — स्‍थान एवं अवसर के अनुसार व्‍यवहार करना।
  44. झूठ रे पग कोनी होवै — झूठ अधिक दिन तक नहीं चल सकती।
  45. चोरन नै कै लाग अर सहूकार नै कै जाग — दोनों तरफ भडकाना।
  46. जांवतै चोर रा झींटा ही चोखा — कुछ न प्राप्‍त होने की अपेक्षा कुछ ना कुछ प्राप्‍त होना ही बेहतर है।
  47. घणी बहुवां है तो किसी बटाऊ लारै घालणनै — बहुतायत हाने का यह मतलब नहीं कि वह अनुपयोगी है।
  48. घोड़ा री दौड़ में कनात्‍यां रो ई फरक रेवै — समकक्ष की हार – जीत में मामूली अंतर।
  49. चिंडपड़ै सुहाग सूं रंडेपों ई चोखो — कष्‍टप्रद वस्‍तु की अपेक्षा उसका न होना ही ठीक है।
  50. चाल ऐ छियां घड़ी अेक नै आऊं — अपने आप पर अत्‍यधिक घमण्‍ड होना।
  51. जिण री खावै बाजरी बिण री बजावै हाजरी — अपने मालिक के प्रति वफादार होना।
  52. गई बात न घोड़ा ई को नावड़ै नी — समय निकलने के बाद कुछ नहीं किया जा सकता।

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